संसार में कुछ इस प्रकार के व्यक्ति होते हैं, जिनसे मिलते-जुलते लोग हर काल, समाज और देश में मिल जाते हैं। मैं शरत बाबू का उपन्यास 'विराज बहू' पढ़ रहा था। उसमें नीलाम्बर चक्रवर्ती के प्रसंग में मुझे राजस्थान के शिवजी राम की याद आ गयी। अगर यह पुस्तक उस अंचल के किसी लेखक द्वारा लिखी गयी होती तो जानकार लोगों को नीलाम्बर के चरित्र में शिवजी राम का भ्रम होता।
इस कथा के नायक का जन्म आज से सौ वर्ष पहले शेखावाटी के किसी कस्बे में हुआ था। पिता का देहान्त बहुत पहले हो गया था। साधारण-सी सम्पन्न गृहस्थी थी। घर में माता और दो भाई थे। माता यद्यपि पढ़ी-लिखी तो नहीं थी, परंतु बहुत ही चतुर और बुद्धिमती थी। पति के मरने के बाद दोनों पुत्रों को अच्छी शिक्षा दी। घर-गृहस्थी को भी सँभाल कर रखा। दोनों भाइयों में आपस में इतना प्रेम था कि गाँव के लोग इनको राम-लक्ष्मण की जोड़ी की उपमा देते। उस समय की रीति के अनुसार दोनों के विवाह बचपन में ही हो गये थे।
एक दिन, बड़े भाई राम किशन ने मुम्बई जाकर काम करने का विचार माता के सामने रखा। यद्यपि उसकी आयु केवल बीस वर्ष की ही थी, कभी परदेश जाने का अवसर भी नहीं मिला था। यात्राएँ बीहड़ और कष्टमय थीं, परंतु पिता का साया सिर पर था नहीं। जो कुछ पास में था, वह पिछले वर्षों में खर्च हो गया था। इसलिये भारी मन से माता ने आज्ञा दे दी।
छोटे भाई शिवजी राम और पत्नी को वृद्धा माता की सेवा के लिये घर पर छोड़ कर वह मुम्बई के लिये विदा हो गया। शिवजी राम के जिम्मे कुछ काम तो था नहीं, इसलिये भाई के छोटे बच्चे को खेलाता रहता और गाँव में कभी साधु-सन्त आते तो उनकी सेवा में सबसे आगे पहुँच जाता।
तीन मील दूर जंगल में एक कुआँ था। सुबह जल्दी उठ कर नित्य कर्म के लिये वहाँ चला जाता। साथ में चार-पाँच सेर अनाज ले जाता, जो वहाँ पक्षियों को चुगा देता। वहाँ से आकर अपनी दो गायों को दाना-पानी खिलाता, उनके ठाण की सफाई आदि का सब काम वही करता। फिर स्नान करके नियम से राम जी के मन्दिर जाता, वे उनके कुल देवता थे।
गाँव में रह कर उसने वैद्यक और नाड़ी परीक्षा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसलिये बचे हुए समय में गरीब रोगियों की चिकित्सा करता और बहुतों को दवा के सिवा पथ्य भी अपने पास से दे देता था।
इन सबके अलावा, उसने एक नियम यह भी बना रखा था कि गाँव में किसी की भी मृत्यु हो, वहाँ जरूर पहुँच जाता और चलावे के सारे कामों में पूरे मनोयोग से हिस्सा लेता। चाहे बैसाख जेठ की गर्मी हो या पूस-माघ की सर्दी की रात, ऐसा कभी नहीं हुआ कि शिवजी राम ऐसे मौके पर नहीं पहुँचा हो।
उन दिनों छुआ छूत का बहुत विचार था, परंतु उसकी मान्यता थी कि मृत्यु के बाद भगवान् की जोत-में-जोत मिल जाती है। मृतक की कोई जाति नहीं होती। इसलिये गरीब हरिजनों के यहाँ भी ऐसे मौकों पर पहुँच जाता। अपने गाँव और आस-पास के देहात में सब लोग उसको शिवजी भैया कहकर पुकारते थे।
माता धार्मिक भावना की थी और उसकी प्रेरणा से ही शिवजी राम की इन कामों में रुचि हुई थी, परंतु पत्नी और भौजाई बराबर नाराज रहतीं। वे कहतीं- 'सब ऊलल जलूल काम तुम्हारे जिम्मे ही पड़े हैं।'
कभी-कभी गाँव के सण्डे-मुसण्डे भी बीमारी या कष्टों का बहाना करके ठग ले जाते थे। शिवजी राम के पास आकर शायद ही कोई निराश लौटा हो। बड़ा भाई तीन-चार वर्षों के अन्तराल से गाँव आता और दो-तीन महीने रहकर फिर मुम्बई चला जाता। माता का देहान्त होने के बाद पत्नी और पुत्र को भी वह अपने साथ मुम्बई ले गया। गाँव में अब पत्नी और बच्चों के साथ शिवजी राम अकेले रह गये।
सन् 1901 ई० में मुम्बई में जो महामारी हुई, उसमें राम किशन की मृत्यु हो गयी। उसकी पत्नी और चौदह वर्ष का पुत्र रामदयाल दोनों रोते-बिलखते अपने गाँव वापस आ गये। शिवजी राम ने तो कभी कमाया नहीं था, परंतु अब सारा भार उस पर पड़ा। मुम्बई न जाकर अपने कसबे में ही गल्ले की दुकान कर ली, भतीजे को भी साथ ले जाकर काम सिखाने लगा।
दुकानदारी में जो सूझ-बूझ और चालाकी चाहिये, उसका शिवजी राम में सर्वथा अभाव था। लोग उधार ले जाते, रुपया-पैसा देते नहीं। वे जानते थे, शिवजी राम कभी कचहरी जाकर अदायगी के लिये नालिश नहीं करेगा। आखिर, दो-तीन वर्ष बाद नुकसान देकर दुकान उठानी पड़ी। इसी बीच, भतीजा रामदयाल अपने पिताकी तरह ही काफी होशियार हो गया और मुम्बई चला गया।
राम दयाल के पिता का वहाँ के बड़े व्यापारियों से अच्छा सम्पर्क था और उसकी ईमानदारी की साख भी थी। मुम्बई जाकर उसने कॉटन-एक्सचेंज में अपने पिता के नाम के पुराने फर्म को फिर से चालू कर लिया।
संयोग ऐसा बना कि थोड़े वर्षों में ही काम जम गया और उसके पास लाखों रुपये हो गये।
कई बार चाचा को मुम्बई आने के लिये राम दयाल ने लिखा, परंतु गाँव में इतने तरह के काम रहते कि शिवजी राम मुम्बई न जा सका। बाद में द्वारका धाम की यात्रा के समय उसको सपरिवार मुम्बई ठहरने का मौका मिला। वहाँ अपने भतीजे का वैभव और सुनाम देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। राम दयाल ने और उसकी पत्नी ने उन्हें सदा के लिये वहीं रहने का आग्रह किया, परंतु उसका मन महानगरी में नहीं लगा और थोड़े दिनों के बाद ही वह वापस राजस्थान आ गया। अब शिवजी भैया की जगह वह सेठ शिवजी राम हो गया था। दान-धर्म की मात्रा बढ़ गयी, परंतु प्रौढ़ हो गया था, इसलिये पहले जितनी भागदौड़ नहीं कर पाता था।
इतने गुणों के बावजूद उसमें एक कमी रही कि घर की समस्याओं की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। दोनों लड़कियों का विवाह तो अच्छे घरों में हो गया, परंतु एक मात्र लड़का लिख-पढ़ नहीं पाया।
कुछ ऐसे लोग भी थे, जिनको शिवजी राम के यश और मान-बड़ाई से ईर्ष्या होने लगी। उन्होंने मुम्बई में राम दयाल के कान भरने शुरू किये कि इतनी मेहनत करके कमाते तो तुम हो और वाह-वाही तथा सेठाई सब तुम्हारे चाचाजी की होती है। उसकी स्त्री तो पहले से ही भरी बैठी थी, पर पति के डर से चुप थी। उसके बहुत कहने - सुनने पर कई वर्षों बाद राम दयाल स्त्री-बच्चों सहित मुम्बई से अपने गाँव आया। वास्तव में ही, जो बात लोगों ने कही थी, वह सही निकली। चारों तरफ सेठ शिवजी राम की प्रशंसा हो रही थी। वे जिस तरफ से निकल जाते लोग खड़े होकर, राम-राम करते। सुबह-शाम सैकड़ों अभ्यागतों के लिये अन्न-क्षेत्र चालू था। मौका देखकर राम दयाल ने चाचा से बँटवारे के लिये कहा। एक बार तो शिवजी राम को बहुत कष्ट हुआ; पर तुरन्त ही सँभलकर बोले- 'बेटा! कमाया हुआ तो सब तुम्हारे पिता जी का ही है, मैंने तो उम्रभर केवल खर्च ही किया, इसलिये जैसे चाहो कर लो, मुझे इसमें क्या कहना है?'
एक कागज पर सम्पत्ति का ब्यौरा लिखा गया। बड़ी हवेली और मुम्बई का फर्म राम दयाल ने अपने लिये रखना चाहा। नकद रुपयों का दो बराबर का हिस्सा हुआ। अपना मकान छोड़कर जाने में बहुत क्लेश होता है, परंतु शिवजी राम के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आयी। उसने कहा- 'तुम्हारी मान-बड़ाई और इज्जत के लिये बड़ी हवेली में रहना सर्वथा उचित भी है। मैं कल ही छोटी हवेली में चला जाऊँगा। अब रही नगद रुपये की बात, सो मुझे तो अन्दाज ही नहीं था कि अपने पास इतना सारा रुपया है! मैं इनको कहाँ सँभाल पाऊँगा ? देवदत्त जैसा है, तुम जानते ही हो, इन रुपयों को तुम अपने पास ही रहने दो। खर्च के लिये जितनी जरूरत होगी, मँगवा लिया करूँगा।' अन्तिम वाक्य कहते हुए उसकी आँखें जरूर गीली हो गयी थीं। राम दयाल सोचने लगा कि न तो चाचा जी ने हिसाब की जाँच की, न हवेली छोड़ने में आपत्ति की और न मुम्बई के फर्म की साख (गुडविल) के बदले में ही कुछ चाहा; बल्कि सारे रुपये भी मेरे पास ही छोड़ रहे हैं।
उसे अपने-आप पर ग्लानि और लज्जा हो आयी। वह रोता हुआ चाचा के पैरों पर गिर कर क्षमा माँगने लगा। कहने लगा, 'लोगों के बहकावे में आकर मैंने यह नासमझी की। मुझे किसी प्रकार का भी बँटवारा नहीं करना है। बड़े भाग्य से आप सरीखे चाचा मिलते हैं। पिता जी तो बचपन में ही छोड़कर चले गये। अगर आप पढ़ा-लिखा कर मुझे योग्य नहीं बनाते तो भला आज हम सबका क्या होता ?'
कुछ दिनों बाद मुम्बई जाते समय वह अपने छोटे भाई देवदत्त को भी साथ ले गया। वहाँ जाकर उसकी पुरानी आदतें छूट गयीं और वह भी काम में लग गया।
मैंने जब शिवजी राम को देखा था, उस समय वे अस्सी वर्ष के वृद्ध थे। संयम और त्याग का जीवन रहा, इसलिये उस समय भी स्वास्थ्य अच्छा था। दान-धर्म के तौर-तरी के बदल गये थे। सदाव्रत और ब्राह्मण-भोजन के साथ-साथ, उनके द्वारा स्थापित स्कूल, अस्पताल और जच्चा घर भी जनता की सेवा कर रहे थे।